रविवार, 4 दिसंबर 2011

बहुत याद आएगी देव साहब की अदाएगी

(1923-2011)
जेपी यादव ः देव साहब नहीं रहे। यकीनन दुनिया छोड़ने के बाद देव साहब और ज्यादा याद आएंगे। अपने अंदाज के लिए। एक टेलीविजन इंटरव्यू में जब देव साहब से पूछा गया, ‘आप इतना पॉजिटिव कैसे रहते हैं’ जवाब में उन्होंने कहा, 'इंसान को पॉजिटिव तो होना ही चाहिए, अगर पॉजिटिव नहीं होंगे तो वी शुड गिव अप (हमें जीना ही छोड़ देना चाहिए)।’ कहने का मतलब जिंदगी में एनर्जी के लिए आशावादी होना बेहद जरूरी है। सही मायने में आशावादी होना ही उनकी जिंदादिली का राज था। जीवन के अंतिम पड़ाव पर एक के बाद एक फ्लॉप फिल्मों ने भी देव साहब को न तो थकने दिया और न ही हारने। यकीन मानिए दोस्तो, देव साहब ने खुद ही मौत को दावत दी होगी, वरना मौत की क्या मजाल जो उनके पैरों के तलवों में गुदगुदी करने की हिमाकत भी कर सके।
अपनी उम्दा अदाकारी से फिल्म ‘गाइड’ (1965) के लिए फिल्म फेयर जीतने वाले देव साहब बेशक बेहतरीन अभिनेता थे। ऐसे अभिनेता, जो जीवन भर कामयाबी की नई-नई इबारतें लिखते रहे। इसमें कोई शक नहीं कि ‘गाइड’ देव साहब अभिनीत सबसे उम्दा फिल्म है। फिल्म का सेकेंड हाफ जिंदगी का वह ढलता नगमा है, जिसे हर अच्छा दर्शक सुनना और देखना चाहता है। भूल जाइए इसका उम्दा संगीत, भूल जाइए उम्दा डायरेक्शन, तो आपको देव साहब की अदायगी ही याद आएगी। इस भूमिका के लिए देव साहब को बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड मिला। इस भूमिका ने जाहिर है देव साहब को परिपक्व कलाकार बना दिया। ज्वेलथीफ (1967), जॉनी मेरा नाम (1970) ने देव साहब को काफी शोहरत दी। इसके बाद उन्होंने डायरेक्शन की दुनिया में कदम रखा। प्रेम पुजारी (1970), हरे रामा हरे कृष्णा (1971), देस-परदेश (1978) बनाई। 26 जनवरी, 2001 को सरकार ने देव साहब को पद्म भूषण से नवाजा और दादा साहेब अवॉर्ड भी देव को दिया जा चुका है। देव साहब ने अपनी को-स्टार कल्पना कार्तिक को जीवनसंगिनी बनाया। उनका बेटा सुनील और बेटी देविना अपनी दुनिया में मस्त हैं। हाल ही में उन्होंने चार्जशीटपूरी की है, जो जल्द ही रिलीज होगी।

जिंदगीनामा 
देव आनंद का जन्म 26 सितंबर, 1923 को पंजाब के गुरुदासपुर जिले में देवदत्त पिशोरीमल आनंद के परिवार में हुआ। इन्होंने अपनी पढ़ाई लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज से की। इसके बाद जिंदगी में कुछ कर गुजरने का सपना लिए मुंबई (तब की बंबई) चले आए। हालांकि, तब तक इनके बड़े भाई चेतन आनंद इप्टा से जुड़कर मुंबई में कदम जमा चुके थे। मुंबई के बारे में कुछ हद तक सही ही कहा जाता है कि यह शहर किसी को अपने रंग में नहीं रंगता, शख्स को खुद ही उसके रंग में रंगना होता है। शुरुआती साल संघर्ष भरे रहे। खैर स्ट्रगल काम आया। देव आनंद को प्रभात प्रोडक्शन की फिल्म हम एक हैं (1946) मिली, लेकिन इसका कोई लाभ नहीं मिला। हां, यह फिल्म करने के दौरान एक अच्छी बात यह हुई कि प्रभात स्टुडियो में देव आनंद की मुलाकात फिल्म के असिस्टेंट डायरेक्टर गुरुदत्त से हुई। यह मुलाकात जारी रही और गाढ़ी दोस्ती में तब्दील हो गई। गुरुदत्त ने देव से वादा किया कि वह जब भी डायरेक्टर बनेंगे उन्हें अपनी फिल्म में हीरो लेंगे। समय बीतता रहा। बतौर अभिनेता बोंबे टाकीज की फिल्म ‘जिद्दी’ (1948) बेहद सक्सेसफुल रही। इस फिल्म में देव आनंद के अपोजिट कामिनी कौशल थीं। इसके डायरेक्टर थे शाहिद लतीफ। इस फिल्म को इसलिए भी याद किया जाता है कि इसमें गाया लता का एक गीत चंदा रे जा... काफी लोकप्रिय हुआ था। कामयाबी मिलने लगी तो देव साहब के हौसले सातवें आसमान को छूने लगे। देव साहब प्रोड्यूसर बने। उन्होंने अपना बैनर नवकेतन शुरू किया। इस बैनर तले देव साहब ने पहली फिल्म अफसर (1950) बनाई। इसमें अपने अपोजिट सुरैया को लिया। इसके डायरेक्शन का जिम्मा संभाला चेतन आनंद ने। यह फिल्म बुरी तरह फ्लॉप रही। हालांकि, एसडी बर्मन का संगीत खूब लोकप्रिय हुआ। देव साहब को इस फ्लॉप फिल्म ने कई झटके दिए। इसी दौर में देव साहब को याद आए गुरुदत्त। स्ट्रगल के दौर में गुरुदत्त साहब की दोस्ती काम आयी। देव साहब ने गुरुदत्त को नवकेतन की एक फिल्म के डायरेक्शन का जिम्मा सौंपा। इस तरह 1951 में बाजी फिल्म रिलीज हुई। गुरुदत्त के डायरेक्शन में पहली हिंदी फिल्म की बाजी। यह बात बहुत कम लोगों को मालूम होगी कि इस फिल्म की कहानी महान अभिनेता बलराज साहनी ने लिखी थी। ‘बाजी’ ने देव साहब की हिम्मत तो बढ़ाई ही, साथ ही साथ ही कल्पना कार्तिक, जॉनी वॉकर, साहिर लुधियानवी और गायिका गीता दत्त की इमेज भी बदल दी। इसके बाद देव आनंद और गुरुदत्त ने जाल (1952) बनाई। इसमें देव ने बेदर्द स्मगलर का रोल किया। फिल्म अच्छी बनी थी, लेकिन बॉक्स ऑफिस ने दगा दे दिया। सफलता 100 दोस्त बनाती है, तो कुछ दोस्तों को खो भी देती है। इस फिल्म की नाकामयाबी के बाद गुरुदत्त ने तय किया कि वे अपनी फिल्म में खुद अभिनय करेंगे। खैर यह गुरुदत्त का फैसला था, रंग लाया। सीआईडी (1956) ने सफलता के कई प्रतिमान गढ़े।
इधर, देव आनंद की कामयाबी का भी सफर जारी रहा। 50 के दशक में त्रिमूर्ति (दिलीप, राज कपूर और देव आनंद) का जलवा था। अब तक देव आनंद की छवि लवर ब्वॉय की बन चुकी थी। हालांकि, मुनीमजी (1955), पॉकेटमार (1956) पेइंग गेस्ट (1957) फिल्में करके देव साहब अपनी लवर ब्वॉय की छवि तोड़ने की कोशिश भी की।
इसके बाद तो एक्टिंग की दुनिया में देव साहब का जलवा पूरी तरह कायम हो चुका था। काला पानी (1958) में बेहतरीन एक्टिंग के लिए देव आनंद ने फिल्म फेयर का अवॉर्ड भी जीता। हम दोनों (1961) एक यादगार फिल्म बन गई। इसमें देव आनंद ने डबल रोल किया था।







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