रविवार, 4 दिसंबर 2011

बहुत याद आएगी देव साहब की अदाएगी

(1923-2011)
जेपी यादव ः देव साहब नहीं रहे। यकीनन दुनिया छोड़ने के बाद देव साहब और ज्यादा याद आएंगे। अपने अंदाज के लिए। एक टेलीविजन इंटरव्यू में जब देव साहब से पूछा गया, ‘आप इतना पॉजिटिव कैसे रहते हैं’ जवाब में उन्होंने कहा, 'इंसान को पॉजिटिव तो होना ही चाहिए, अगर पॉजिटिव नहीं होंगे तो वी शुड गिव अप (हमें जीना ही छोड़ देना चाहिए)।’ कहने का मतलब जिंदगी में एनर्जी के लिए आशावादी होना बेहद जरूरी है। सही मायने में आशावादी होना ही उनकी जिंदादिली का राज था। जीवन के अंतिम पड़ाव पर एक के बाद एक फ्लॉप फिल्मों ने भी देव साहब को न तो थकने दिया और न ही हारने। यकीन मानिए दोस्तो, देव साहब ने खुद ही मौत को दावत दी होगी, वरना मौत की क्या मजाल जो उनके पैरों के तलवों में गुदगुदी करने की हिमाकत भी कर सके।
अपनी उम्दा अदाकारी से फिल्म ‘गाइड’ (1965) के लिए फिल्म फेयर जीतने वाले देव साहब बेशक बेहतरीन अभिनेता थे। ऐसे अभिनेता, जो जीवन भर कामयाबी की नई-नई इबारतें लिखते रहे। इसमें कोई शक नहीं कि ‘गाइड’ देव साहब अभिनीत सबसे उम्दा फिल्म है। फिल्म का सेकेंड हाफ जिंदगी का वह ढलता नगमा है, जिसे हर अच्छा दर्शक सुनना और देखना चाहता है। भूल जाइए इसका उम्दा संगीत, भूल जाइए उम्दा डायरेक्शन, तो आपको देव साहब की अदायगी ही याद आएगी। इस भूमिका के लिए देव साहब को बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड मिला। इस भूमिका ने जाहिर है देव साहब को परिपक्व कलाकार बना दिया। ज्वेलथीफ (1967), जॉनी मेरा नाम (1970) ने देव साहब को काफी शोहरत दी। इसके बाद उन्होंने डायरेक्शन की दुनिया में कदम रखा। प्रेम पुजारी (1970), हरे रामा हरे कृष्णा (1971), देस-परदेश (1978) बनाई। 26 जनवरी, 2001 को सरकार ने देव साहब को पद्म भूषण से नवाजा और दादा साहेब अवॉर्ड भी देव को दिया जा चुका है। देव साहब ने अपनी को-स्टार कल्पना कार्तिक को जीवनसंगिनी बनाया। उनका बेटा सुनील और बेटी देविना अपनी दुनिया में मस्त हैं। हाल ही में उन्होंने चार्जशीटपूरी की है, जो जल्द ही रिलीज होगी।

जिंदगीनामा 
देव आनंद का जन्म 26 सितंबर, 1923 को पंजाब के गुरुदासपुर जिले में देवदत्त पिशोरीमल आनंद के परिवार में हुआ। इन्होंने अपनी पढ़ाई लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज से की। इसके बाद जिंदगी में कुछ कर गुजरने का सपना लिए मुंबई (तब की बंबई) चले आए। हालांकि, तब तक इनके बड़े भाई चेतन आनंद इप्टा से जुड़कर मुंबई में कदम जमा चुके थे। मुंबई के बारे में कुछ हद तक सही ही कहा जाता है कि यह शहर किसी को अपने रंग में नहीं रंगता, शख्स को खुद ही उसके रंग में रंगना होता है। शुरुआती साल संघर्ष भरे रहे। खैर स्ट्रगल काम आया। देव आनंद को प्रभात प्रोडक्शन की फिल्म हम एक हैं (1946) मिली, लेकिन इसका कोई लाभ नहीं मिला। हां, यह फिल्म करने के दौरान एक अच्छी बात यह हुई कि प्रभात स्टुडियो में देव आनंद की मुलाकात फिल्म के असिस्टेंट डायरेक्टर गुरुदत्त से हुई। यह मुलाकात जारी रही और गाढ़ी दोस्ती में तब्दील हो गई। गुरुदत्त ने देव से वादा किया कि वह जब भी डायरेक्टर बनेंगे उन्हें अपनी फिल्म में हीरो लेंगे। समय बीतता रहा। बतौर अभिनेता बोंबे टाकीज की फिल्म ‘जिद्दी’ (1948) बेहद सक्सेसफुल रही। इस फिल्म में देव आनंद के अपोजिट कामिनी कौशल थीं। इसके डायरेक्टर थे शाहिद लतीफ। इस फिल्म को इसलिए भी याद किया जाता है कि इसमें गाया लता का एक गीत चंदा रे जा... काफी लोकप्रिय हुआ था। कामयाबी मिलने लगी तो देव साहब के हौसले सातवें आसमान को छूने लगे। देव साहब प्रोड्यूसर बने। उन्होंने अपना बैनर नवकेतन शुरू किया। इस बैनर तले देव साहब ने पहली फिल्म अफसर (1950) बनाई। इसमें अपने अपोजिट सुरैया को लिया। इसके डायरेक्शन का जिम्मा संभाला चेतन आनंद ने। यह फिल्म बुरी तरह फ्लॉप रही। हालांकि, एसडी बर्मन का संगीत खूब लोकप्रिय हुआ। देव साहब को इस फ्लॉप फिल्म ने कई झटके दिए। इसी दौर में देव साहब को याद आए गुरुदत्त। स्ट्रगल के दौर में गुरुदत्त साहब की दोस्ती काम आयी। देव साहब ने गुरुदत्त को नवकेतन की एक फिल्म के डायरेक्शन का जिम्मा सौंपा। इस तरह 1951 में बाजी फिल्म रिलीज हुई। गुरुदत्त के डायरेक्शन में पहली हिंदी फिल्म की बाजी। यह बात बहुत कम लोगों को मालूम होगी कि इस फिल्म की कहानी महान अभिनेता बलराज साहनी ने लिखी थी। ‘बाजी’ ने देव साहब की हिम्मत तो बढ़ाई ही, साथ ही साथ ही कल्पना कार्तिक, जॉनी वॉकर, साहिर लुधियानवी और गायिका गीता दत्त की इमेज भी बदल दी। इसके बाद देव आनंद और गुरुदत्त ने जाल (1952) बनाई। इसमें देव ने बेदर्द स्मगलर का रोल किया। फिल्म अच्छी बनी थी, लेकिन बॉक्स ऑफिस ने दगा दे दिया। सफलता 100 दोस्त बनाती है, तो कुछ दोस्तों को खो भी देती है। इस फिल्म की नाकामयाबी के बाद गुरुदत्त ने तय किया कि वे अपनी फिल्म में खुद अभिनय करेंगे। खैर यह गुरुदत्त का फैसला था, रंग लाया। सीआईडी (1956) ने सफलता के कई प्रतिमान गढ़े।
इधर, देव आनंद की कामयाबी का भी सफर जारी रहा। 50 के दशक में त्रिमूर्ति (दिलीप, राज कपूर और देव आनंद) का जलवा था। अब तक देव आनंद की छवि लवर ब्वॉय की बन चुकी थी। हालांकि, मुनीमजी (1955), पॉकेटमार (1956) पेइंग गेस्ट (1957) फिल्में करके देव साहब अपनी लवर ब्वॉय की छवि तोड़ने की कोशिश भी की।
इसके बाद तो एक्टिंग की दुनिया में देव साहब का जलवा पूरी तरह कायम हो चुका था। काला पानी (1958) में बेहतरीन एक्टिंग के लिए देव आनंद ने फिल्म फेयर का अवॉर्ड भी जीता। हम दोनों (1961) एक यादगार फिल्म बन गई। इसमें देव आनंद ने डबल रोल किया था।







गुरुवार, 3 नवंबर 2011

यस बॉस... ऑलवेज राइट

मूंगफली तोड़नी नहीं और पगार छोड़नी नहींके सिद्धांत पर चलने वाला कर्मचारी ही जीवन में सच्चे कामचोर का दर्जा पा सकता है। हालांकि इससे नुकसान होते हैं, लेकिन कामचोरी जैसे परम आनंद के आगे सबकुछ फीका पड़ जाता है। यही काम अगर बॉस की निगरानी, कहने का मतलब शागिर्दी में हो, तो क्या कहना। हनुमंत शुक्ला ऐसे ही बॉस हैं, जिन्हें ऐसा कोई सगा नहीं, जिसको हमने ठगा नहींकी उपाधि और उपलब्धि इंटर में पढ़ाई के दौरान ही हासिल हो गई थी। नौकरी में आते-आते आलसी भी हो गए। आलसी भी इतने कि सड़क पर उबासी लेने के दौरान कोई बदतमीज चिड़िया अगर बीट कर दे, तो जब तक नगर निगम का कर्मचारी माफी मांगने के साथ उनका मुंह न धुला दे। आगे नहीं बढ़ते। कई बार ऑफिस लेट आने का हनुमंत शुक्ला का यह बहाना मैनेजमेंट के सामने बिलकुल सटीक बैठा है, ‘क्या बताऊं, आज मेरा पैर गऊ माता के द्रव्य प्रसाद पर पड़ गया, इसलिए मीटिंग में नहीं आ सका।इस पर कोई यह सवाल भी दाग सकता है, ‘पैर धोकर भी आ सकते थे ऑफिस। भाई कौन ऐसे अपवित्र हो गए थे कि गंगा नहाने जैसा काम करना पड़ा। ‘ … लेकिन बॉस होने के कारण हनुमंत शुक्ला को समझाना हाथी को बाथरूम में नहलाने जैसा है। अगर कोशिश करूं तो हाथी को बाथरूम में नहला भी सकता हूं, लेकिन बॉस को समझानान बाबा ना, क्योंकि बॉस इज ऑलवेज राइट। ऐसे में इस हकीकत से कोई इनकार कर सकता कि अगर बॉस अनजाने ही घोड़े को घोड़ी कह दे, तो बॉस को समझाने की बजाय घोड़े का लिंग बदलवाना ज्यादा फायदे का सौदा होता है।
कर्मचारी का चोला उतारकर बॉस का पद पर पाए ज्यादा दिन नहीं हुआ है। हनुमंत शुक्ला बॉस होने के साथ थोड़े दिन इस अकड़ में रहे कि मैं बॉस हो गया हूं।थोड़े दिनों तक हनुमंत शुक्ला ने अपने जूनियर और सबोर्डिनेट के सामने ऐसी हनक दिखाई कि उनका टैरर मैनेजमेंट को खुश कर गया। उन्हें देखकर लोग जल्द ही बॉस की परिभाषा कुछ इस तरह देने लगे, ‘थोड़ी सी अकड़ + बदतमीजी + प्रमोशन से दिमाग खराब = बॉस होता है।जल्द ही हनुमंत शुक्ला का यह भ्रम टूट गया, जब जबरदस्त पैरवी पर उनके भी बॉस आ गए। व्यवहार मे वे उसके भी बॉस या कहें बाप निकले। यही से हनुमंत का अंगुलिमाल की तरह हृदय परिवर्तन हो गया। और बहुत जल्द उन्हें यह अहसास हो गया कि आखिरकार मैं भी एक कर्मचारी हूं। कहावत भी है, ‘कुत्ते के दिन आते हैं और जाते भी है और ऊंट की औकात तब तक, जब तक कि उससे ऊंचा पहाड़ नहीं मिलता।
बस यहीं से हनुमंत ने अपने बॉस को मक्खन लगाना शुरू कर दिया। और देखते-देखते वे फिर से आला दर्जे के कामचोर हो गए। जल्द ही मूंगफली तोड़नी नहीं, पगार छोड़नी नहींके सिद्धांत को नैतिक शिक्षा की तरह अपने जीवन में उतार लिया। इस तरह हनुमंत से बॉस और जूनियर दोनों खुश। पिछले तीन साल से वे एक ही जगह टिके हुए हैं, बिना कोई काम किए। साथ में तीन प्रमोशन भी मिल चुका है। हनुमंत को प्रमोशन क्यों और कैसे मिले? यह सवाल कौन बनेगा के लिए सुरक्षित है, जिसमें प्रतियोगी से सवाल किया जाएगा। हनुमंत शुक्ला को प्रमोशन को प्रमोशन किस आधार पर मिला?
ऑप्शंस
ए- चाटुकारिता
बी- चमचागिरी
सी- मक्खनबाजी
डी- इनमें से सभी
इस अंतिम सवाल का सही जवाब देकर एक प्रतियोगी करोड़पति हो जाएगा।
खैर, अब  हनुमंत शुक्ला के नक्श-ए-कदम पर चलते हुए उनके जूनियर भी चमचागिरी के नए पायदान चढ़ रहे हैं। और जो नहीं चढ़ रहे हैं, उन्हीं के दम से ऑफिस की इज्जत बची पड़ी है। वरना हनुमंत अपने बॉस की नजर में कुख्यात कर्मी हैं और उन्हें दो बार सर्वश्रेष्ठ कर्मचारी का खिताब भी मिल चुका है। दरअसल, हनुमंत काम करने के दौरान काम चालू रखने का ऐसा माहौल तैयार करते हैं और इस दौरान खूब शोर करते हैं। इस गलती पर इस चीखे, उस गलती पर उस पर चीखेयह सब करने के दौरान काम ठप पड़ जाता है। इससे साथी कर्मियों और मैनेजमेंट को लगती है कि यही शक्स काम कर रहा है, बाकी सब कामचोर हैं। उन्होंने जो कुछ अनुभव किया, सब अपने जूनियरों को भी सिखा दिया। सीखने-सिखाने का सिलसिला जारी है।
आज ही की घटना को लीजिए। आज हनुमंत शुक्ला ऑफिस में लेट आए। उनके साथी सक्सेना जी ने कहा, ‘सर आपको याद कर रहे हैं।हनुमंत भी मूड में थे, सो झनझनाती जवाब भी दे दिया। याद स्वर्गीय को किया जाता है, हम तो अभी जिंदा हैं सक्सेना। सर मुझसे मिलना चाहते होंगे।’ ‘ हां-हांकहते हुए सक्सेना हनुमंत के सेंर ऑफ ह्यूमर को ताड़ गए और बेवजह ही ठहाका मार कर हंस पड़े।
उधर, हनुमंत बॉस के कमरे में 12.20 मिनट पर बदहवास दाखिल हुए और बोले, ‘सर गुड मॉर्निंगयह सुनकर बॉस को गुस्सा आया, आटे में नमक की तरह। यहां तक तो ठीक था, लेकिन वाटर प्रूफ से लैस बॉस के हाथ में बंधी घड़ी, भरी दोपहरी में 12.20 मिनट परसर गुड मॉर्निंगसुनकर पानी-पानी हो गई, गनीमत रही कि खराब नहीं हुई।
इस बीच सुपर बॉस बोले, ‘क्या इरादा हैहनुमंत तुरंत बोल पड़े, ‘सर सेलरी मिलते ही गर्मी की छुट्टियों में घूमने जाने का इरादा है।’  यह सुनते ही सुपर बॉस की आंखों में चमक आ गई। बोले, ‘ भई हनुमंत मेरे बीवी, बच्चों का भी टिकट करवा देना। मैं भी तुम्हारे साथ चला चलूंगा।
 हो जाएगा सर। यह कहते हुए हनुमंत सुपर बॉस के केबिन से बाहर निकले और काम में तल्लीन सक्सेना जी को टोकते हुए कहा, ‘सक्सेना जी मैं कुछ दिनों के लिए छुट्टियों पर जा रहा हूं, ऑफिस की जिम्मेदारी तुम पर है।
इतना कहने के साथ ही हनुमंत शुक्ला ऑफिस से ऐसे गायब हो गए, जैसे दिन में तारे। ठीक 5 मिनट बाद सुपर बॉस अपने केबिन से निकले और काम में तल्लीन सक्सेना जी को बिना कोई आदेश दिए निकल गए। सक्सेनाजी ठगे से रह गए। साथियों ने सक्सेना से सहानुभूति जताने की बजाय उन्हें हिकारत भरी नजर से देखा और सभी बाहर निकल गए सुपर बॉस के साथ हनुमंत शुक्ला को भी हैप्पी जर्नी कहने
 जेपी यादव

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

छुट्टी चाहिए, तो आजमाइए

ऑफिस से छुट्टी लेने का हुनर सबको नहीं आता, इसीलिए शातिर कर्मचारी तो अपने बॉस को आसानी से बेवकूफ बना लेते हैं और जिन्हें छुट्टी नहीं मिलती, वे होते हैं शराफत अली या फिर कोई सज्जन कुमार। इनके उलट दो होनहारों तेज प्रकाश और योग्य कुमार को ही ले लीजिए। ऑफिस में काम नहीं करने के मामले में तेज प्रकाश को तेजी हासिल है, तो योग्य कुमार को योग्यता। कभी-कभार ऑफिस में सख्ती हुई भी तो ये अपने हुनर का जलवा पेशकर अपने आपको आसानी से बचा ले जाते हैं। जब कभी इन दोनों को लगता है कि इन्हें काम करना ही पड़ेगा, तो नाना-नानी और दादा-दादी तक को श्रद्धा से याद करना शुरू कर देते। इसलिए नहीं कि श्राद्ध शुरू होने वाले हैं और वे अपने पूर्वजों तक को याद करेंगे, बल्कि काम नहीं करने के बहाने के तौर पर वे किसी की मौत से लेकर श्राद्ध तक का बहाना लिखित में शर्ट की ऊपर वाली जेब में रखते हैं। यही बहाने अगर बॉस को मूर्ख बनाने में खरे उतरे तो ठीक, वरना बहानों की कोई कमी नहीं है।
योग्य कुमार और तेज प्रकाश ने एक बार खुलेआम दावा किया था कि उनके पास ऑफिस में लेट पहुंचने के लिए 120 और झूठ बोलने के 300 तरीके हैं। यकीन मानिए, इन दोनों का आकड़ा जाकर 420 पहुंचता है। इन दोनों की एक खूबी यह भी है कि ये अपने चाहने वालों को भी छुट्टी लेने का फॉर्मूला बताते रहते हैं। ऐसे में पूरा ऑफिस ही इन दोनों की मुट्ठी में रहता है। कहने का मतलब काम को कुछ इस तरह करते हैं कि काम को भी इस बात का पछतावा होता है, 'हाय किन हाथों में फंस गया।' काम नहीं करने के मामले में इन दोनों ने जाने-अनजाने ही कितने रिकॉर्ड बनाए होंगे, मगर अफसोस इनकी उपलब्धि के प्रदर्शन के लिए इनकी कोई किताब पब्लिश नहीं हुई है। अभी कुछ ही दिन हुए हैं। बॉस ने तेज प्रकाश और योग्य कुमार को अपने केबिन में बुलाया। यह तो तेज प्रकाश की तेजी और योग्य कुमार की योग्यता का नमूना भर  है कि बॉस ने बुलाया सुबह, लेकिन दोनों पहुंचे शाम को वह भी हांफते हुए। इस समय बॉस घर जाने की तैयारी में थे। दोनों ने देर आयद दुरुस्त आयद की तर्ज पर केबिन में घुसते ही तकरीबन 60 डिग्री आगे की ओर झुकते हुए प्रणाम किया, ऐसा करता देख बॉस त्रिपाठी एक पल को घबरा गए। हालांकि, चापलूस पसंद बॉस की तरह त्रिपाठीजी को इन दोनों का यह अंदाज खुश कर गया। लेकिन मिजाज से खड़ूस होने के चलते चेहरे पर वही पुरानी तरह की मुर्दनी छाई रही, जैसे किसी 'चौथा-उठाला' में गए शख्स की भूखे  लौटने के बाद होती है। बॉस के चेहरे पर कुछ देर तक यूं ही मुर्दनी सी छाई रही। फिर संभलते हुए बोले, 'सुना है तुम दोनों ऑफिस में ठीक से काम नहीं करते।' तेज प्रकाश को इस सवाल के बारे में पूर्व से ही जानकारी थी, इसलिए तुरंत इसका जवाब भी दे दिया। 'सर, सुनी-सुनाई बातों पर भरोसा नहीं करते।' बॉस यह सुनकर चुप हो गए, क्योंकि कितना भी शातिर से शातिर बॉस इसका जवाब देने से पहले सोचेगा। अब बारी योग्य कुमार की थी। योग्य कुमार कुछ इस तरह महसूस कर रहे थे, जैसे कटघरे में खड़े हत्या के आरोपी की फांसी की सजा माफ होने के साथ वह बाइज्जत बरी होने वाला हो। योग्य कुमार बोले, 'लगता है किसी ने हमारे खिलाफ आपके कान भरे हैं।' बॉस के चेहरे पर कोई प्रभाव पड़ता नहीं देख योग्य कुमार तुरंत बोले, 'सर आपको उल्लू बनाया गया है। इतना सुनते ही बॉस की आंखों के आगे बहुत से उल्लू घूमने लगे और मन ही मन स्वर्गीय पूज्य पिताजी को याद कर सोचने लगे कि कहीं वे 'उल्लू के पट्ठे' तो नहीं हैं। तभी तेज प्रकाश ने बात संभालते हुए कहा, 'कहने का मतलब। हम तो बस यही कहना चाहते हैं कि लोग हमारे खिलाफ आपके कान भरते हैं।' इसके बाद दोनों बॉस के केबिन से बाहर आ गए।
ऑफिस में तेज प्रकाश और योग्य कुमार का वही जलवा है, जो कॉंन्ग्रेंस पार्टी में राहुल गांधी का। क्या कहा? आपको यकीन नहीं आता। ... तो इसमें मैं क्या करूं। यह आपकी समस्या है, सुनते हैं इसका कोई इलाज भी नहीं है। खैर, आगे सुनिए। ... इस ऑफिस में तैनात छेनू चपरासी बॉस को भले ही पानी पिलाना भूल जाए, लेकिन बड़े-बड़ों को पानी पिलाने का माद्दा रखने वाले तेज प्रकाश और योग्य कुमार को पानी पिलाना कभी नहीं भूलता। ये दोनों जैसे ही ऑफिस पहुंचते हैं, पानी का ताजा गिलास लिए छेनू हाजिर हो जाता है। आज बॉस से निपटकर या कहें निपटाकर दोनों जैसे ही अपनी सीट पर बैठे तभी मुंह लटकाए छेनू योग्य कुमार और तेज प्रकाश के पास पहुंच गया। लगभग रोते हुए छेनू बोला, 'साहब दो दिन की छुट्टी चाहिए, लेकिन बास ने साफ इनकार कर दिया है।' सामने कुर्सी पर दोनों लोगों की त्योरियां चढ़ गईं। योग्य कुमार बोले, 'ऐसा कैसे हो सकता है। छुट्टी पर तुम्हारा पूरा अधिकार है। इस अधिकार से तुम्हें कोई वंचित नहीं कर सकता।' इसके बाद योग्य कुमार ने पान मुंह में कुचरकर कुछ इस तरह थूका, जैसे कोई गुस्सा थूकता है। लेकिन इसकी प्रतिक्रिया में तेज प्रकाश ने ऐसा कुछ नहीं किया और अपना गुस्सा पान की पीक के साथ गटक गए। इसका मतलब तेज प्रकाश ने अपना गुस्सा पी लिया। दोनों कुछ देर तक गहन मुद्रा में कुछ सोचते रहे फिर योग्य कुमार ने मोर्चा संभालते हुए कहा, 'पहले तो बॉस को जीभर के गालियां दो।' फिर क्या था। हरि इच्छा मानकर छेनू ने बॉस को जीभर के गालियां दीं, बीच में उमस भरी गर्मी में थकान हुई तो एक गिलास पानी पी लिया। छेनू की गालियां खत्म हुईं तो उसका चेहरा विश्व विजेता की तरह चमक रहा था। इस दौरान कोई एड मेकर इस समय होता तो छेनू को एनर्जी ड्रिंक के एड के लिए बतौर मॉडल साइन कर लेता। मगर दुर्भाग्य... छेनू का नहीं... एड मेकर का दुर्भाग्य भाई...।
थोड़ी देर तक माहौल में शांति रही। अब बारी योग्य कुमार की थी। तुरंत छेनू को गुरुमंत्र दिया, लेकिन यह भी हिदायत दी कि इसकी चर्चा बॉस बिरादरी के लोगों से मत कर देना, नहीं तो हमारा कुछ नहीं तुम्हारी नौकरी पर जरूर बन आएगी। योग्य कुमार ने कहना शुरू किया, देखो छुट्टी दो की बजाय तीन दिन की ले लेना वो भी बिना बताए। चौथे दिन ऑफिस आने से पहले एक धार्मिक स्थल पर बिकने वाला मिठाई का खाली डिब्बा मुझसे ले लेना और उसमें छन्नू हलवाई की मिठाई खरीदकर पैक कर लेना और पूरे ऑफिस में यह कहकर बांट देना कि फलां धार्मिक स्थल पर गया था, प्रसाद लाया हूं। सबसे पहले बॉस को ही खिलाना और तुम्हारा काम हो जाएगा।
छेनू को यह मंत्र देने के बाद दोनों ने ऑफिस में दो घंटे काम किया और ओवरटाइम का फॉर्म भरकर निकलने ही वाले थे कि छेनू अदरक और इलायची के टेस्ट की चाय लिए सामने खड़ा था। इसके जो हुआ आप भी जानते हैं। फिर भी लिख देता हूं। चाय पीने के साथ तेज प्रकाश और योग्य कुमार ने एक-एक घूंट के साथ बॉस को 10-10 गालियां दीं और ऑफिस की ओर देखकर सोचने लगे कल फिर आना है इस ऑफिस पर एहसान करने....।

 जेपी यादव

गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011

मन्नू भाई बोले तो… मूर्ख लाल मलाई काटे

मेरे इलाके में रहने वाले मिथ्यानंदजी दो कौड़ी के जमीनी नेता हैं। जमीनी नेता इसलिए कि इन्होंने अपने पोस्टर हर खंभे पर नीचे तक लगवा रखे हैं। जिससे ढाई माह का पिल्ला भी मामूली प्रयास से रोज इनका मुंह धुलवा देता है। ये जनाब मैडम के प्रति खास आस्था रखते हैं। मैडम का स्वास्थ्य थोड़ा सुधरा तो मिथ्यानंदजी कॉलोनी में मिठाई बांट रहे थे। मेरे घर पर आए तो मैंने मन्नू भाई... के कारनामों की बात छेड़ दी।
...ये लो मैं तो पहले ही कह रहा था कि मैडम में पूर्ण आस्था रखने वाले मिथ्यानंदजी मुझसे ये बेहुदा सवाल करेंगे कि मन्नू भाई कौन? इसके जवाब में मैंने उनके सामने ही यह बात कही कि ऐसा पूछने वाले की संसार में कोई जगह नहीं है और ऐसे धरती के बोझ को बंगाल की खाड़ी में जाकर समाधि ले लेनी चाहिए या फिर किसी गंदे नाले को और गंदा करते हुए डूब मरना चाहिए। नाले का नाम सुनकर पहले तो मिथ्यानंदजी खुश हुए, लेकिन डूब मरने के लिए नहाने जैसी प्रक्रिया से गुजरना उन्हें कतई मंजूर नहीं है, इसलिए उदास भी हो गए।
बहरहाल, उनकी परेशानी को दूर करते हुए मैंने कहा, मन्नू भाई यानी ‘मूर्ख लाल मलाई काटे’। मिथ्यानंद के हठ को दूर करने के लिए मैंने ‘मूर्ख लाल मलाई काटे’ के प्रवक्ता की तरह उनकी शान में कसीदे भी पढ़ दिए कि ‘वो’ देश के सबसे ऊंचे पद पर हैं। उनकी सबसे बड़ी काबिलियत यही है कि वे मैडम की पसंद हैं। तब तक, जब तक कि मैडम को कोई दूसरा कर्मचारी नहीं मिल जाता।’ मेरे इस जवाब पर मिथ्यानंदजी हत्थे से ही उखड़ गए। बोले, ‘ये क्या मजाक है।’ मैंने कहा, ‘हां भाई ये बिल्कुल सच है।’ लेकिन मिथ्या का लबादा ओढ़े मिथ्यानंदजी को यकीन ही नहीं आ रहा है कि 'मूर्ख लाल मलाई काटे' अपने देश के सबसे ऊंचे पद पर हैं। वो तो समझ रहे थे कि मैडम से ऊपर कोई नहीं है।
 मैंने कहा, ‘मिथ्यानंदजी यह सच है और आपकी तरह लोगों के लिए रहस्य भी कि मन्नू भाई सबसे ऊंचे पद पर कैसे पहुंच गए। यह इस सदी का सबसे बड़ा और गहरा रहस्य है और यह रहस्य केवल मैडम ही जानती हैं।’
ये मैडम की ही मेहरबानी है कि हमारे 'मूर्ख लाल मलाई काटे' राजनीति की पिच पर ऐसे बैट्समैन की तरह डटे हुए हैं, जो हर बॉल पर आउट हो जाता है, लेकिन अंपायर आउट ही नहीं देता। ... क्योंकि अंपायर मैडम हैं ना। आलम यह है कि 'मूर्ख लाल मलाई काटे' खेलने तो वन-डे आए, लेकिन अब इस देश की राजनीतिक पिच पर पिछले सात सालों से बल्ला भांज रहे हैं। 
'मूर्ख लाल मलाई काटे' की कूबत का लोहा पूरी दुनिया मानती है, लेकिन विरोधी पुल्लू लाल उन्हें सबसे कमजोर मानते हैं, क्योंकि वे अपने डिसीजन खुद नहीं लेते, बल्कि मैडम लेती हैं। हां एक बात और कि हमारे 'मूर्ख लाल मलाई काटे' लड़ने-झगड़ने में बिलकुल यकीन नहीं रखते, इसीलिए चुनाव तक नहीं लड़ते। बिना चुनाव लड़े ही वे सबसे ऊंचे पद पर पहुंच गए और जो चुनाव लड़कर आए वे बेचारे उनके अंडर काम कर रहे हैं।
मिथ्यानंदजी को फिर भी यकीन नहीं आया, तो मैंने तुरंत अपने बेटे को बुलाया, जो अक्सर 'सिंह इज किंग' फिल्म का गाना जोर-जोर से गाता है। अपने बेटे से मिथ्यानंद जी के सामने ही पूछ लिया, ‘बेटा ये बताओ, 'सिंह इज किंग' का मतलब जानते हो।’ उसने मुझे इस तरह घूरा जैसे कि मैं उसका उल्लू और वो मेरा पट्ठा हो।’ उसने थोड़ी देर सोचा फिर बोला, ‘सिंह इज किंग वही तो हैं, जो मैडम के यहां काम करते हैं। अब तो उन्हें वहां काम करते हुए सात साल पूरे हो चुके हैं।’ मिथ्यानंदजी यह सुनकर काफी देर तक हें...हें...हें... करते रहे। मिथ्यानंदजी की हें... हें... हें... कब ढेंचूं... ढेंचूं... में तब्दील हो गई, पता ही नहीं चला। ‘नमस्ते’ कहकर चले गए।
खैऱ, अब मैं आपसे मुखातिब होता हूं। मैं तो एक ही बात समझा कि हर काबिल आदमी नाकाबिलों की फौज में से एक को सरदार (हेड) चुनता है, जिसके पास ‘हेड’ तो हो लेकिन हेड में कुछ नहीं हो। उसे आप सिंह इज किंग कहें या फिर मूर्ख लाल मलाई काटे... क्या फर्क पड़ता है। अरे खतम हो गया मामू...।
                                          
                                                                                                       
जेपी यादव